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Submitted by PatientsEngage on 24 January 2022
Jyoti Joshi with her husband Madhukar who was diagnosed with Alzheimers

ज्योति जोशी ने अपनी पुस्तक 'जर्नी ऑफ सेवन स्टेप्स' में अपनी खुशहाल शादी और अमेरिका प्रवास का वर्णन किया है। अपने पति की देखभाल में समर्पित, वे उन मार्मिक क्षणों के बारे में लिखती हैं जब उन्हें पति के अल्जाइमर रोग का पता चला था। वे एक देखभालकर्ता के रूप में अपने अनुभव बांटती हैं और पुस्तक लिखने के अपने कारणों के बारे में भी बात करती हैं।

आपकी पुस्तक 'जर्नी ऑफ सेवन स्टेप्स' आपके जीवन के 50 वर्षों का एक भावनात्मक लेखा-जोखा है। इन संस्मरणों को लिखने के लिए आपको प्रेरणा कैसे मिली?

मुझे छोटी उम्र से ही अपनी व्यक्तिगत डायरी में लिखने की आदत रही है। यह मेरा पलायन था। मैं भावनाओं के उतार-चढ़ाव के बारे में लिखने में विश्वास करती हूं। अपने पति की बीमारी के दौरान, मैं अपनी डायरी में दिल खोलकर अपने अनुभव और  भावनाएं लिखती रहती थी। मैंने सोचा, मैं इसे बाद में “साक्षी भाव” के साथ पढ़ सकूंगे। एक दिन जब मैं लिख रही थी, मैं सोचने लगी 'क्या होगा अगर मैं भी भूलने लगूं? मेरे पति को अल्जाइमर हुआ है, मुझे भी हो सकता है।' मुझे इस ख़याल से एकदम झटका लगा, मानो अचानक मुझपर बिजली गिर गयी हो। और तब से मैंने और अधिक लिखना शुरू कर दिया, यहां तक कि छोटी-छोटी बातों को भी नोट करने लगी। मेरे पति के गुजर जाने के बाद, एक सहेली और उसके पति मुझसे मिलने आए। मैंने कहा कि मैं एक किताब लिखने की सोच रही हूं। मैंने अपना कुछ लिखा जब पढ़ कर सुनाया, वे बस रोने लगे। मेरे लेखन ने उन्हें गहराई से हिला दिया था। उसके बाद मुझे लगा कि मुझे अपनी यात्रा दूसरों के साथ साझा करनी ही होगी।

To read this in English: After His Alzheimer's, From Wife I Became His Mother

क्या आप पुस्तक के शीर्षक के बारे में हमें समझा सकती हैं?

यह किताब मेरे पति मधुकर के साथ मेरे जीवन के बारे में है। अपनी शादी के समय हमने धार्मिक सात प्रतिज्ञाएँ के प्रतीक सात कदम एक साथ (सप्तपदी) लिए थे। तभी से हमारी यात्रा शुरू हुई थी। और वे सात कदम हमारे लिए लाखों कदमों में बदल गए। मुझे लगा यही शीर्षक सबसे उपयुक्त रहेगा।

क्या आप हमें अपने पति के बारे में कुछ पृष्ठभूमि दे सकती हैं? उनका निदान कब हुआ?

मधुकर का स्वभाव था शांत और चुप रहना। लोगों के साथ खुल पाने में उन्हें टाइम लगता था। इसके विपरीत मैं बातूनी थी। वे मुझे चिढ़ाते थे कि 'ज्योति किसी से भी बातें कर सकती है। वह हमारे प्रांगण में पक्षियों के साथ भी बातें कर सकती है’। हालांकि वे कुछ अलग-अलग से  प्रतीत होता है, वास्तव में वे बेहद मिलनसार थे। वे बहुत होशियार और बुद्धिमान थे। वे बॉम्बे विश्वविद्यालय से स्वर्ण पदक विजेता और एक कुशल स्टेटिस्टीशियन थे। अमेरिका जाने से पहले वे जमनालाल बजाज इंस्टीट्यूट में पढ़ा रहे थे। वे जीवन से प्यार करते थे। उन्हें चुनौतियां बहुत पसंद थीं: ये उनके करियर में हो सकती थीं, या पहाड़ पर चढ़ने की चुनौती हो सकती थी , या आइस रिंक में स्केटिंग।

उनके अल्जाइमर के लक्षणों के बारे में, वर्ष 2008 में जब वे 70 वर्ष के थे, तब मुझे कुछ गड़बड़ दिखाई देने लगी थी। लेकिन मैंने इसे ज्यादा महत्व नहीं दिया, क्योंकि हम उन्हें 'एब्सेंट माइंडेड प्रोफेसर (भुलक्कड़ प्रोफेसर) मानते थे। मुझे तब अधिक अटपटा लगा जब उनकी ड्राइविंग प्रभावित होने लगी। वे  हमेशा एक बहुत ही साफ-सुथरे रिकॉर्ड वाले उत्कृष्ट ड्राइवर रहे थे। मैं उनकी ड्राइविंग में बदलाव देख सकती थी: स्टॉप साइन पर नहीं रुकना, जब हम हाईवे पर थे तो हाईवे से बाहर निकलने का सही एग्जिट नहीं मिल पाना, आदि। मैं उनकी और दूसरों की सुरक्षा को लेकर डर गयी। मैं नहीं चाहती थी कि वे अब गाड़ी चलाएं। साथ ही, मैंने देखा कि उन्हें कई बार चीजें याद रखने में परेशानी हो रही थी। वे भूल जाता था कि उन्होंने चेक बुक या चाबी कहाँ रखी थी। यह सामान्य नहीं था। कुछ ठीक नहीं था। लेकिन मैंने तब भी नहीं सोचा कि यह अल्जाइमर हो सकता है। मैंने इसके बारे में टीवी पर सुना था। लेकिन इसे आमतौर पर पहचाना नहीं जाता था। हम इसे बूढ़े लोगों की बीमारी सोचते हैं। मधुकर बूढ़े नहीं थे । वे शारीरिक रूप से भी काफी युवा लगते  थे। आख़िरकर, मैं उन्हें 2009 में डॉक्टर के पास ले गयी, और तभी उन्हें चिकित्सकीय रूप से अल्जाइमर का निदान मिला।

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निदान को स्वीकार करने और उसके साथ एडजस्ट करने में शुरू में किस तरह की दिक्कतें थीं?

मैंने उनकी बीमारी को अपना कर्म मान कर तुरंत स्वीकार लिया। मैंने कभी यह सवाल नहीं किया, ‘मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ?’ या ‘इनके साथ ऐसा क्यों हुआ?' मुश्किल बात थी बीमारी को समझना और यह जानना कि उसका क्या असर होगा। मुझे नहीं पता चल पा रहा था कि मैं इससे कैसे निपटूंगी। डॉक्टर केवल उनका निदान करने और उनके लिए दवा लिखने के लिए मौजूद थे।

इसलिए, मैंने अल्जाइमर के बारे में बहुत कुछ पढ़ा। मैंने पता चलाया कि सपोर्ट ग्रुप्स (सहायता समूह) थे। मैं शुरू में उनमें शामिल हुई, लेकिन वह अनुभव काफी कष्टदायक लगा। मैं दूसरों का भयानक अनुभव नहीं सुनना चाहती थी, क्योंकि वह डरावने थे। उन शुरुआती दिनों में, मधुकर अभी भी काम कर रहे थे और अपने आप को संभाल रहे थे, और मैं अल्जाइमर की अग्रिम/ उन्नत अवस्था की उदास करने वाली कहानियां नहीं सुनना चाहती थी। मैंने इस शुरू के चरण में सपोर्ट ग्रुप्स में जाना बंद कर दिया, लेकिन बाद में मैं फिर से इन में शामिल होने लगी।

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जब मधुकर के अल्जाइमर का पता चला तो वे स्टेज 3 अल्जाइमर में थे। वे अल्जाइमर के रास्ते में आधे रास्ते से आगे जा चुके थे। बीमारी को समझना मुश्किल था। और मुझे नहीं पता था कि बीमारी के कारण और क्या-क्या होगा। इसमें क्या कुछ शामिल है? इस के बारे में पढ़ने से मुझे बहुत मदद मिली। जैसे-जैसे बीमारी बढ़ती गई, मेरा और मधुकर का रिश्ता बदलता गया। मैं मानो उनकी माँ बन गई, और वे मेरे बच्चे बन गए। मुझे उनकी  देखभाल करनी थी। मुझे एहसास हुआ कि उन्होंने अपनी याददाश्त और भावनाओं को खोना शुरू कर दिया है। और मेरे लिए यह समझना कठिन था क्योंकि देखने से वे बीमार नहीं लग रहे थे। यह वाकई में इस सफ़र का मुश्किल हिस्सा था।

इस यात्रा में आपकी सबसे बड़ी चुनौती क्या थी?

मैं उनकी शारीरिक देखभाल कैसे कर पाऊँगी। शुरु में मुझे कुछ नहीं करना पड़ा, लेकिन जैसे-जैसे अल्जाइमर बढ़ता गया, वे शारीरिक रूप से अधिक निर्भर होते गए। मैं उस समय 62 वर्ष की थी और अपने स्लिप डिस्क से परेशान थी। इसलिए मैंने एक सहायक रखा। मेरी बेटियां सबसे बड़ा सहारा थीं। वे मुझे जबरदस्ती घर से बाहर भेजतीं, कहतीं, ‘मम्मी, टाइम अप, यू नीड टू गो आउट' (माँ, समय हो गया, आपको बाहर जाने की जरूरत है)। मैं उनसे बहस करती। मैं विरोध करती और कहती 'मुझे ब्रेक की जरूरत नहीं है। मैं ठीक हूं'। मधुकर से दूर रहना मेरे लिए मुश्किल था। खुद को उनसे अलग करना सबसे बड़ी चुनौती थी क्योंकि मैं उनसे बहुत प्यार करती थी। पूरे जीवन भर हमारा एक अद्भुत, प्यार भरा रिश्ता रहा था। जब मैं उनकी देखभाल करने वाली बनी, मैंने तय किया कि उनके सामने नहीं रोऊंगी। मैं नहीं चाहती थी कि वे मुझे परेशान या असहाय देखें। इसलिए मैं बाथरूम जाकर रोती। उनकी देखभाल करने के लिए मुझे मजबूत बनना पड़ा।

देखभाल करने वालों के लिए, विशेष रूप से अल्जाइमर के लिए, आप दूसरों के लिए किन कोपिंग मेकनिस्म्स (जूझने के तरीके/ रणनीतियां) की सिफारिश करेंगी?

वास्तव में, बिना देखभाल करने वाले से बात किये मैं कोई सलाह नहीं दे सकती। प्रत्येक व्यक्ति  अलग होता है और रोग व्यक्ति को कैसे प्रभावित करता है वह भी अलग होता है; मैं केवल अपना अनुभव साझा करना चाहती हूं जिस से वे जान पायें कि अकेले या हताश या उदास महसूस करने में वे अकेले नहीं हैं। देखभाल पर कुछ प्रकाश डाल सकती हूँ। मैंने अपनी देखभाल में कुछ चीज़ें जो बदलीं वे यहाँ पेश कर सकती हूँ।

  • सबसे पहली और सबसे महत्वपूर्ण बात, आपको प्यार भरा देखभालकर्ता होना होगा। ऐसे कई मौके आएंगे जब आपको गुस्सा आएगा, लेकिन आपको हमेशा खुद को याद दिलाना होगा कि यह वह व्यक्ति नहीं है जिसे आप जानते थे। वह व्यक्ति चला गया है। यह बीमारी का असर है। इसलिए हमेशा प्यार महसूस करें। बीमार होने के बाद मधुकर मुझ पर चिल्लाते भी थे। इससे मैं अन्दर ही अन्दर टूट जाती थी। मैं भी क्रोधित होना चाहती थी, अपना बचाव करना चाहती थी, पलट कर उनपर चिल्लाना चाहती थी। लेकिन मैं खुद को रोक लेती। मुझे खुद को याद दिलाना पड़ता था कि मैं जिस मधुकर के साथ बात कर रही हूँ वे पहले वाले मधुकर नहीं  हैं।
  • व्यक्ति चाहे कितने भी गलत हों, उनके साथ कभी भी बहस न करें या उन्हें सही क्या है, उसके बारे में राजी करने की कोशिश न करें। किसी भी बात को समझाने या सही ठहराने की कोशिश न करें। उनका मजाक न उड़ायें। ऐसे वाक्य न बोलें - 'मुझे आपको यह कितनी बार बताना पड़ेगा! ' या 'मैंने आपको यह कितनी बार दिखाया है!'। देखभाल करने वाले के रूप में आपको यह याद रखना होगा कि उनका दिमाग पूरी तरह काम नहीं कर रहा है। बल्कि धीरे से अपने हाथ उनके कंधे पर रखें। स्पर्श, स्नेहपूर्ण स्पर्श बहुत ज़रूरी है। जैसे माँ बच्चे के गिरने पर उसे उठाती है, अपने करीब पकड़ती है और पीठ थपथपाती है, वैसा ही व्यवहार आपको व्यक्ति के साथ करना होगा।

आप 23 वर्षों से योग और तनाव प्रबंधन सिखा रही हैं। क्या आपको लगता है कि इससे आपको मजबूत रहने में और बेहतर तरीके से स्थिति का सामना करने में मदद मिली?

बेशक! आपको अल्जाइमर के लिए योग की आवश्यकता नहीं है। आपके जीवन में हर दिन कुछ संघर्ष होता है। योग दर्शन ने मुझे सिखाया है कि हर चीज को शांति से कैसे स्वीकार किया जाए। मैं अपनी बेटियों को बताती हूं - ‘मन में आग लग रही हो, उस वक्त तक मैडिटेशन (ध्यान) शुरू करना मत टालो, उस वक्त मैडिटेशन शुरू नहीं कर पाओगे। अभी से मैडिटेशन करना शुरू कर दो।‘ हर किसी के लिए मैडिटेशन करना आसान नहीं है, लेकिन आप हर दिन बस कुछ मिनट के लिए शांत बैठ सकते हैं। इसे आदत बनाएं। मेरे योग अभ्यास और शिक्षण ने निश्चित रूप से मेरी मदद की है। साथ ही मेरे माता-पिता के संस्कार और ग्राउंडिंग से भी मदद मिली।

पिता को अल्ज़ाइमर  है, इसका आपके बच्चों पर क्या असरपड़ा?

जब उनके पिता को अल्जाइमर हुआ, तब मेरी बेटियाँ बड़ी हो चुकी थीं। वे दोनों अपने करियर में सफल थीं और अपने दम पर अलग रह रही थीं। मुझे पता है कि वे इस स्थिति से दुखी थीं। लेकिन उन्होंने इसे कभी स्पष्ट नहीं होने दिया। मुझे उनसे मदद कभी नहीं मांगनी पड़ी, वे हमेशा मेरी मदद करने के लिए खुद आती थीं। हम सभी बोस्टन के पास रह रहे हैं, इसलिए उनके लिए आवागमन आसान था। मैं उनके प्यार भरे समर्थन के बिना इस स्थिति को नहीं संभाल पाती।

अल्जाइमर को देखभाल करने वाले का रोग माना जाता है - ऐसा क्यों?

शायद इसलिए कि यह बीमारी ऐसी है कि देखभाल करने वाले को भी उतना ही प्रभावित करती है जितना रोगी को। अल्जाइमर वाले व्यक्ति की देखभाल करने वाले इस देखभाल की वजह से खुद बीमार पड़ सकते हैं। यह अन्य बीमारी वाले शैय्याग्रस्त (बेडरिडेन) रोगी की देखभाल करने की तुलना में अधिक चुनौतीपूर्ण है। तनाव कई तरह से प्रकट हो सकता है। यह शारीरिक, भावनात्मक और मानसिक रूप से अभिभूत कर सकता है। इसलिए यदि देखभाल करने वाले अपना ख्याल नहीं रख रहे हैं, तो तनाव के कारण उन्हें भी कोई बीमारी हो सकती है। मैं अपने लिए कुछ समय निकालने पर खुद को स्वार्थी और दोषी महसूस करती थी - जैसे कि टहलने जाने के लिए या अपनी वर्कशॉप जाने पर। मैं सोचती थी कि मुझे उनके साथ रहना चाहिए। भले ही मैं भावनात्मक रूप से मजबूत थी, लेकिन कभी-कभी मुझे लगता था कि मैं टूट रही हूँ।

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अल्जाइमर वाले व्यक्ति को नर्सिंग होम में कब भर्ती किया जाना चाहिए?

यह सबसे कठिन निर्णय है। इसके लिए कोई निश्चित समय या अवस्था नहीं है। कुछ लोगों में  व्यक्ति की देखभाल करने के लिए शारीरिक शक्ति नहीं होती है। नर्सिंग होम बहुत महंगे हो सकते हैं। कुछ लोग व्यक्ति को तब स्थानांतरित करते हैं जब व्यक्ति मूत्राशय पर नियंत्रण खो देते हैं, कुछ लोग तब स्थानांतरित करते हैं जब व्यक्ति पूरी तरह से निर्भर हो जाते हैं और अन्य लोग यह विकल्प तब चुनते हैं जब व्यक्ति पूरी तरह से स्मृति खो देते हैं और उन्हें पहचान भी नहीं पाते। मैं कुछ ऐसे लोगों को जानती हूं जिन्होंने प्रियजन को पूरे समय के लिए घर पर रखा था, लेकिन ऐसे में देखभाल के कारण उन्हें सांस लेने तक का वक्त नहीं मिलता था। मैं दृढ़ता से सुझाव दूंगी कि आप ऐसे निर्णय लेते समय अपने परिवार और डॉक्टर से बात करें। आपका निर्णय आपकी आवश्यकताओं और  क्षमता से भी प्रभावित होगा। आप अपने अनुकूल चुनाव करने से स्वार्थी नहीं हो रहे है। मैं अब भी कभी-कभी यह बात सोच कर रोती हूं कि मैंने मधुकर को नर्सिंग होम क्यों भेजा। मैं अभी भी इसके लिए दोषी महसूस करती हूं। तार्किक रूप से मुझे पता है कि यह सबसे अच्छा निर्णय था, लेकिन भावनात्मक रूप से इसे स्वीकार करना कठिन था। निर्णय लेने से करीब 2 साल पहले से ही उनका डॉक्टर मुझे उन्हें नर्सिंग होम में डालने के लिए कह रहे थे। मधुकर 76 वर्ष के थे जब मैंने आखिरकार उन्हें नर्सिंग होम में स्थानांतरित करा, और वे अंतिम सांस लेने से पहले 10 महीने तक वहां रहे।

ऐसी स्थिति से गुज़र रहे लोगों को आप क्या सलाह देना चाहेंगी?

एक प्यार करने वाला, मजबूत देखभालकर्ता बनें। जितना आप प्रियजन की देखभाल कर रहे हैं, उतना ही अपना भी भावनात्मक और शारीरिक रूप से ख्याल रखें। अपनी खुशी भी ढूंढे। प्रकृति में रहने से बहुत आरोग्यलाभ होता है इसलिए सैर करें, कुछ समय बाहर बिताएं। अपने अंदर छिपी दैवी शक्ति से संपर्क करें। कुछ ऐसा खोजें जो आपको खुशी दें। यदि आप टहलने या फिल्म देखने के लिए बाहर जा रहे हैं तो दोषी महसूस न करें। आपको अपने खुद का देखभाल कर्ता भी बनना होगा।

यहां पढ़ें ज्योति जोशी की किताब का रिव्यू: जर्नी ऑफ सेवन स्टेप्स

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