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Submitted by PatientsEngage on 5 April 2023
50 वर्षों से परिवार के सदस्यों की देखभाल करने वाली महिला से कुछ सहानुभूति और स्वीकृति संबंधी सीख

वीना शील भटनागर, 80, अर्थशास्त्र की लेक्चरर रह चुकी हैं। वे अपने परिवार के सदस्यों की पचास साल से अधिक समय तक लगातार देखभाल करती रही हैं। उन्होंने जिन प्रियजनों की देखभाल की है, उस श्रंखला में अंत में उनके दिवंगत पति विजय शील भटनागर थे, जिन्हें पार्किंसंस रोग था। यहां वे देखभाल करने की इस लंबी यात्रा के बारे में बात करती हैं और अपनी सीख साझा करती हैं।

1963 में 22 साल की उम्र में मेरी शादी हुई, और उसके तुरंत बाद मैं एक देखभाल कर्ता बन गई। तब से मेरी देखभाल करने की यात्रा 50+ साल से नॉनस्टॉप चलती  रही। कुछ समय पहले तक, मैं अपने पति की देखभाल कर रही थी, जिन्हें पार्किंसंस रोग था। 2015 में उनका निधन हो गया।

ससुर की गंभीर दुर्घटना

मेरे ससुर भाखड़ा बांध के मुख्य डिजाइन इंजीनियर थे। मेरी शादी के चार साल बाद, वे अपनी एक ऑफिशियल यात्रा के दौरान एक कार दुर्घटना का शिकार हुए। उन्हें एक अभिघातजन्य मस्तिष्क की चोट (टीबीआई, ट्रॉमैटिक ब्रेन इंजरी) हुई, जिससे उनका बायाँ भाग लकवाग्रस्त हो गया और उनकी संज्ञानात्मक क्षमता बुरी तरह प्रभावित हुई। वे सिर्फ 54 साल के थे, और मेरे पति छह भाई-बहनों में सबसे बड़े थे, जिनमें से कई अभी पढ़ रहे थे। इसलिए मुझे और मेरे पति को उनकी देखभाल करने में सक्रिय भूमिका निभानी थी। बाद में मेरे ससुर अस्पताल से घर तो लौटे लेकिन उन्हें गंभीर मानसिक और शारीरिक क्षति हुई थी। मैं उनके साथ फिजियोथेरेपी और ब्रेन इंजरी रिहैबिलिटेशन के लिए जाती थी, जहां उन्हें सामान्य कार्य सिखाए जाते थे जैसे कि बोलना, पढ़ना, आसान सवाल हल करना।
वे अपने दृढ़ संकल्प और दृढ़ विश्वास से चमत्कारिक रूप से ठीक हुए, और दो साल के भीतर काम पर वापस लौट गए। वे लेग ब्रेसेस और सहारे के साथ चलने में सक्षम थे, हालांकि उनका बायां हाथ और पैर काम नहीं कर रहा था। बाद के वर्षों में, उनके लिए कड़ी निगरानी और देखभाल की आवश्यकता बनी रही, विशेष रूप से इसलिए कि वे मधुमेह (डायबिटीज़) के रोगी थे। पर ऐसा नहीं था कि हम हर समय वहीं थे, क्योंकि मेरे पति रेलवे में थे और हम यात्रा पर जाते थे।

सास का अस्थमा और ब्रेन हैमरेज

मेरी सास को प्रारंभिक जीवन से ही गंभीर दमा (अस्थमा) था। मेरे ससुर के ठीक होने के कुछ साल बाद, मेरी सास को अस्थमा ने गंभीर रूप से प्रभावित करना शुरू कर दिया। उनके दमा के दौरे इतने तीव्र होते थे कि उन्हें अकसर गंभीर अवस्था में अस्पताल ले जाना पड़ता था। प्रमुख देखभालकर्ता के रूप में, मैं अस्पताल जाती थी, और घर पर उनकी दवाओं और आहार का ध्यान रखती थी। मुझे क ऐसा समय याद है जो हम सब के लिए काफी कठिन था। उन्हें ब्रेन हैमरेज हुआ था, जिससे उनका ब्रेन हमेशा के लिए डैमेज हो गया था। हमें उनकी देखभाल करनी थी क्योंकि वे 2 साल तक वेजिटेटिव अवस्था में बिस्तर पर ही थीं।

मेरे माता पिता की देखभाल

मेरी मां और पिताजी को भी देखभाल की जरूरत थी। वे शुरू से ही मुझ पर निर्भर थे क्योंकि मेरी दोनों बहनें विदेश में रहती थीं। एक दिन मेरी मां को अजीब तरह का बुखार हो गया। इसका कोई कारण नहीं मालूम पड़ा, और यह बार-बार होने लगा। उन्हें लंबे समय तक अस्पताल में भर्ती रहना पड़ा। लेकिन बुखार ठीक करने के लिए कुछ भी काम नहीं कर रहा था। कुछ महीनों के बाद वे गुजर गईं। वह सफर बेहद दर्दनाक था।

अनेक जिम्मेदारियों भरा चुनौतीपूर्ण दौर

वे मेरे लिए बेहद मुश्किल दिन थे। मेरे दो छोटे बच्चे थे। मैंने दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से अर्थशास्त्र में मास्टर डिग्री हासिल की थी, और लेक्चरर के रूप में काम करना शुरू किया था। मुझे यह सुनिश्चित करने के लिए कि मैं इन सभी जिम्मेदारियों को साथ-साथ, और कुशलता से निभाऊँ।

पति का पार्किंसंस रोग का निदान

लंबे समय तक अपने ससुराल वालों और माता-पिता की देखभाल करने के बाद, मैंने सोचा था कि अब कुछ राहत होगी। लेकिन तब मेरे पति, श्री विजय शील भटनागर को 61 साल की उम्र में पार्किंसंस रोग का निदान मिला। यह सच में मेरे लिए एक बड़ा सदमा था।

इसकी शुरुआत हल्के लक्षणों से हुई। उन्हें अपना पैर उठाने में परेशानी होने लगी जिसके कारण उन्हें अपना पैर घसीटना पड़ता था और उनके हाथ भी काफी अकड़ रहे थे। वे उन्हें पूरी तरह हिला-झुला नहीं पाते थे। । एक मैकेनिकल इंजीनियर होने के नाते, उन्हें काम के सिलसिले में व्यापक रूप से यात्रा करनी पड़ती थी। पार्किंसंस की शुरुआत से पहले, वे भारतीय रेलवे सेवा में थे, जहाँ से उन्होंने विश्व बैंक को जॉइन करने के लिए स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति (वालन्टेरी रिटायरमेंट) ली। फिर उन्होंने कॉर्पोरेट सेक्टर में काम करना शुरू करा। यहां उनके कार्यकाल में ही उन्हें चलने-फिरने में समस्या होने लगी थी। लेकिन तमाम मुश्किलों के बावजूद वे अकेले ही ऑफिस जाते और सफर करते। जब उन्हें व्हीलचेयर की जरूरत पड़ने लगी, तब भी उन्होंने यात्रा करना बंद नहीं किया। मैं उसके साथ जाती थी और उन्हें हर जगह ले जाती थी। यूं कहिए कि वे अपने पिता की तरह थे: महान संकल्प और साहस वाले व्यक्ति। उनका अपनी बीमारी के आगे न झुकना बहुत सराहनीय था। आखिरकार, 68 साल की उम्र में, जब उनका पार्किंसंस काफी बढ़ गया था, उन्होंने काम करना बंद कर दिया।

नौकरी छोड़ने के बाद वे खुद को घर में भी उतना ही व्यस्त रखना चाहते थे। वे किसी न किसी प्रोजेक्ट में खुद को डुबो देते थे। मुझे याद है, एक समय में, वे वर्षों से ली गई तस्वीरों को व्यवस्थित करने और सूचीबद्ध करने में पूरी तरह से लग गए थे। उन्हें फोटोग्राफी करने का जुनून था और उन्होंने हजारों तस्वीरें एकत्र की थीं। वे उन्हें व्यवस्थित करने में मदद करने के लिए एक कंप्यूटर वाले को बुलाते।

पति के पार्किंसंस रोग की प्रगति

जैसे-जैसे उनकी बीमारी बढ़ती गई, मुझे साफ नजर आने लगा कि हिलने-डुलने, चलने-फिरने में उन्हें ज्यादा तकलीफ होने लगी थी। यहां तक कि दराज खोलने/बंद करने, या टीवी रिमोट पर बटन दबाने जैसे सरल कार्यों के लिए भी उन्हें बहुत ज्यादा मेहनत करनी पड़ती थी। वे पार्क में टहलने जाने की जिद तब तक करते रहे जब तक कि उनका चलना इतना बिगड़ गया था कि उन्हें पूरी सहायता की आवश्यकता पड़ने लगी।

जब वे लगभग 71 वर्ष के थे, तो उन्हें डीप ब्रेन स्टिमुलेशन (डीबीएस) सर्जरी करवाने की सलाह दी गई, जिसमें पार्किंसंस के उन्नत लक्षणों के इलाज के लिए मस्तिष्क में इलेक्ट्रोड लगाए जाते हैं। यह सर्जरी करवाना एक कठिन निर्णय था क्योंकि हम इस प्रक्रिया से परिचित नहीं थे। पर मेरे पति ने आखिरकार इसे करवाने का फैसला किया। वे मुश्किलों से लड़ने वाले इंसान थे, इसलिए बीमारी पर काबू पाने के लिए उनके पास जो भी विकल्प उपलब्ध थे, वे उनका प्रयोग करना चाहते थे। सर्जरी ने नाटकीय रूप से कई लक्षणों में सुधार किया, पर सर्जरी के बाद की देखभाल - पोस्ट ऑपरेटिव केयर - बहुत जटिल थी और उन्हें स्थिर होने में कई महीने लग गए। हाँ, इस सर्जरी ने उन्हें कई और वर्षों की कार्यक्षमता प्रदान की - बिना इसके, सिर्फ मौखिक दवा लेते तो उनकी कार्यक्षमता जल्दी बिगड़ती।

पति का गुजरना

आखिरी चरणों में वे ठीक से लिख या बोल नहीं पाते थे। उन के लिए बात करना बहुत मुश्किल हो गया था। हमारे बीच की बातचीत पूरी तरह ठप हो गयी थी। वे बस बिस्तर पर लेटे रहते और हमें उनकी देखभाल करने देते। कई बार अस्पताल के ट्रिप लगाने के बाद, उन्होंने घर से बाहर जाने से मना कर दिया। इसलिए मैंने सभी सुविधाओं के साथ घर पर एक आरामदायक माहौल बनाया। मैं उन्हें ऑक्सीजन और उनकी सारी दवाइयां दे रही थी। उनकी देखभाल करने के लिए हमारे पास दो अटेंडेंट थे।

मरने के चंद दिन पहले उनकी जागरूकता में गिरावट आयी। मुझे लगा कि वे कोमा की स्थिति की ओर बढ़ रहे हैं। वे हमेशा से काफी जिंदादिल इंसान रहे हैं, मैं नहीं चाहती थी कि वे कोमा में जाएं। उस रात मैंने उनका हाथ पकड़ कर दिल लगाकर जप किया। मैंने उनसे कहा 'आपको जाना है तो जाइए'। अंत उनके ऑक्सीजन स्तर गिरने के साथ हुआ। उसके 3 मिनट बाद वे नहीं रहे। वे ऐसे ही गुजर गए और मैं खुश था कि उन्होंने घर पर ही शांति से अंतिम सांस ली।

उनका निधन 18 जून, 2015 को हुआ।

आध्यात्मिक समर्थन

देखभाल करने की मेरी यात्रा तब शुरू हुई जब मैं अपने अपनी बीसवीं दशक के शुरू में ही थी। घर में इस तरह प्रियजनों की बीमारी के लगातार चल रहे चक्कर में किसी मोड़ पर मैंने सांत्वना और शक्ति के लिए बौद्ध धर्म को अपनाया। मैं गत 30 वर्षों से बौद्ध धर्म के रास्ते पर चल रही हूँ। इसने न केवल मुझे शांत रहने में मदद की है, बल्कि इसने मुझे अपनी परिस्थितियों का सामना करने में भी मदद की। मुझे लगता है कि देखभाल करने वालों के लिए आध्यात्मिक रूप से विकसित होना महत्वपूर्ण है। साथ ही, दार्शनिक दृष्टि से यह स्वीकार करना सुकून देता है कि मृत्यु के बाद भी यात्रा जारी रहती है। यह अंत नहीं है, यह केवल शरीर का त्याग है; आत्मा तो शेष रहती/ अमर है।

देखभालकर्ता के रूप में मेरी सीख

पार्किंसंस के रोगी के मनोविज्ञान को समझना जरूरी है। खुद काम न कर पाने और बढ़ती निर्भरता से रोगी निराश हो जाते हैं। वे अकसर अपना आपा खो सकते हैं। और ज्यादातर मौकों पर उनकी झुंझलाहट और गुस्सा का लक्ष्य देखभाल करने वाले होते हैं। मैं भी उनके कई प्रकोपों का लक्ष्य थी। देखभाल करने का वह एक घुटन भरा दौर था जब मुझ से अनेक तरह की उम्मीदें थीं, कार्यभार भी अधिक था। लेकिन आपको यह समझना होगा कि यह गुस्सा और झुंझलाहट क्यों है। कहा जाता है कि पार्किंसंस वाले व्यक्तियों का स्वभाव बदल जाता है। वे शारीरिक रूप से शायद पहले जैसे लगें लेकिन मानसिक और भावनात्मक रूप से वे बदल गए हैं।

बीमारी कोई भी हो, बीमार व्यक्ति को न सिर्फ शारीरिक रूप से, बल्कि भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक रूप से भी समर्थन करना जरूरी है। यदि रोगी की अच्छी देखभाल की जाए तो देखभाल करने वाले को भी शांति मिलती है। रोग और उसके विभिन्न चरणों को समझना भी आवश्यक है। अगर बीमारी के बारे में जानकारी हो तो देखभाल करने वालों में अधिक सहिष्णुता और सहानुभूति होती है। क्योंकि आप जानते हैं कि आप बीमारी को बिगड़ने से नहीं रोक सकते इसलिए आप स्थिति को शालीनता और गरिमा के साथ स्वीकार करते हैं।

देखभाल करने का सबसे कठिन चरण

पार्किंसंस रोग की जैसे-जैसे प्रगति होती है, तो व्यक्ति की बढ़ती दिक्कतें और निर्भरता और गंभीर लक्षणों के कारण देखभाल की जिम्मेदारियां बढ़ जाती हैं। विशेष रूप से इस में उत्पन्न मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं जैसे कि अवसाद, मतिभ्रम और कन्फ़्युशन को संभालना। यह दौर मेरे लिए सबसे कठिन था। मैंने इस से पहले अन्य बीमारियों वाले प्रियजनों की देखभाल की थी, इसलिए मुझे उस तरह की देखभाल कैसे करनी है, यह पता था। लेकिन पार्किंसंस में उत्पन्न कुछ समस्याएं अलग प्रकार की थीं और अधिक परेशान करने वाली थीं। बीमारी की अग्रिम अवस्था में उनके आवेगों, गुस्से और बढ़ते मतिभ्रम को संभालना बेहद मुश्किल हो गया।

डॉक्टर ने मुझे बताया कि मतिभ्रम दिन में भी होते हैं। वे हादसे बहुत ही व्यक्तिगत होते थे और मुझे चोट पहुँचाते थे। उस समय डॉक्टर के अलावा मैं किसी से बात नहीं कर पाती थी। डॉक्टर मेरे लिए विश्वासपात्र दोस्त की तरह थे। कभी-कभी हताशा के कारण मेरी कोई प्रतिक्रिया होती लेकिन डॉक्टर मुझे एहसास कराते कि यह मेरे पति का असली स्वभाव नहीं है, बल्कि बीमारी है जो प्रकट हो रही है।

हमारा आपस में हमेशा एक स्नेह-पूर्ण संबंध रहा था, और हमने हर मोड़ पर एक दूसरे का समर्थन करा था। लोग कहा करते थे कि हम एक आदर्श जोड़ी हैं। यह हमारा परस्पर का मजबूत बंधन था जिसने हमें बीमारी की विशाल चुनौतियों को धैर्य से, अपनी सर्वश्रेष्ठ क्षमताओं के साथ संभालने में सक्षम बनाया।

अब मैं अस्सी साल की हूँ

शुक्र है कि मैं 80 साल की उम्र में भी काफी स्वस्थ हूं। मैं खुद को व्यस्त रखती हूं। मैं सामाजिक और सामुदायिक कार्यों में भाग लेती हूं। चूंकि पढ़ाना हमेशा से मेरा शौक रहा है, इसलिए मैं वंचित बच्चों की मदद करती हूं। मैं बच्चों और शिक्षा से संबंधित एक धर्मार्थ संगठन टॉक2मी फाउंडेशन से भी जुड़ी हुई हूं।

मुझे लगता है, मेरा फिट और सक्षम रहना उन लोगों का आशीर्वाद है जिनका मैंने ख्याल रखा है। मैं शायद स्वाभाविक रूप से देखभाल करने के लिए ही पैदा हुई हूं। मेरा कर्म में दृढ़ता से विश्वास करती हूं और यह मेरे अच्छे कर्म हैं जो अब मेरी रक्षा कर रहे हैं। शायद मैं किसी दार्शनिक जैसे बोल रही हूं पर मुझे लगता है कि इस तरह के आत्मनिरीक्षण की आवश्यकता है। मुझे लगता है कि ऐसा करने से लोगों को ताकत मिलती है। इस से परिस्थितियों का सामना करने और एक बेहतर देखभालकर्ता बनने में मदद मिलती है।

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