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Submitted by PatientsEngage on 12 April 2022
A woman in a blue blouse and a yellow sari

आत्महत्या से हुई मौत अन्य मौतों से बहुत अलग है - पर सही सहारा और वातावरण हो, तो कदम दर कदम इस के शोक से भी उभर सकते हैं |

“लेफ्ट बिहाइंड: सर्वाइविंग सुसाइड लॉस” की लेखिका डॉ नंदिनी मुरली ने एक दो-भाग (यहाँ और यहाँके साक्षात्कार में अपने पति को आत्महत्या की वजह से खोने के अपने व्यक्तिगत अनुभवों को साझा किया। उन्होंने अपने गहरे शोक और चुनौतियों का वर्णन किया और बताया कि उन्होंने इस दुःख के सागर में डूबने से बचने के लिए क्या उपचार किया और किन रणनीतियों का इस्तेमाल किया। नंदिनीजी ने अपनी पुस्तक और अपने आत्महत्या के क्षेत्र में काम द्वारा आत्महत्या पर सही जानकारी पर आधारित वार्तालाप का एक मंच बनाया है। नीचे प्रस्तुत है हमारे हिंदी पाठकों के लिए, इन दो अंग्रेज़ी साक्षात्कारों पर आधारित एक लेख।

प्रसंग  के लिए “उत्तरजीवी” शब्द का स्पष्टीकरण: आत्महत्या का उत्तरजीवी वह व्यक्ति होता है जिसने अपने प्रियजन को आत्महत्या जैसी दर्दनाक हादसे में खो दिया है। परिवार का एक करीबी सदस्य, एक प्रिय मित्र, सहयोगी या स्वास्थ्य देखभाल पेशेवर (विशेष रूप से मानसिक स्वास्थ्य पेशेवर) इनमें से कोई भी किसी भी समय आत्महत्या का उत्तरजीवी हो सकता है। (स्रोत )

भावनात्मक रूप से साहसी पुस्तक, लेफ्ट बिहाइंड: सर्वाइविंग सुसाइड लॉस लिखने के पीछे नंदिनीजी की प्रेरणा..

नंदिनीजी ने हमेशा लेखन को आत्म-अभिव्यक्ति का एक स्वाभाविक तरीका पाया है। ट्रेजेडी के बाद, आत्महत्या के बारे में और व्यक्ति की मृत्यु के कारण क्षति के बारे में खुली बातचीत की कमी के कारण वे बिल्कुल अकेली पड़ गईं। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि उन के साथ क्या गुज़र रहा है। उन्होंने आत्महत्या और सम्बंधित वियोग और शोक पर जितनी सामग्री मिल पायी, उसे पढ़ना शुरू किया। शोधकर्ताओं का कहना है कि आत्महत्या संबंधी शोक गहन रूप से अलग करने वाला, रहस्यमय और भ्रमित करने वाला है। एक किताब जिस से नंदिनीजी को बहुत प्रेरणा मिली, वह थी कार्ला फाइन की किताब "नो टाइम टू से गुडबाय" - इस में कार्ला फाइन, जिन्होंने अपने पति को आत्महत्या के कारण खो दिया था, कई मुद्दों पर बात करती हैं और अपनी इस क्षति और शोक को एक बहुत ही सार्थक साझाकरण की नींव के रूप में इस्तेमाल करने में कामयाब रही हैं।

लेकिन नंदिनीजी को भारतीय संदर्भ में ऐसी कोई किताब नहीं मिली जिस में खुले तौर से आत्महत्या पर पीछे रह जाने वाले परिवार के दृष्टिकोण से चर्चा हो। हालांकि आत्महत्या एक बहुत ही महत्वपूर्ण विषय है, लेकिन यह कलंक, शर्म, गोपनीयता और चुप्पी से ढका हुआ है - शायद इसी लिए इस पर कोई पुस्तक नहीं थी। उनका मानना है कि जब लोग किसी स्थिति के बारे में व्यक्तिगत अनुभव साझा करते हैं तो उस स्थिति पर बेहतर ज्ञान और अंतर्दृष्टि संभव हो पाती है। यह सोच कर उन्होंने अपने अनुभव को एक पुस्तक के रूप में लिखने का फैसला करा। पुस्तक का लेखन नंदिनीजी के लिए अपनी शक्ति की पुनःप्राप्ति का साधन था। इससे वे अपनी कहानी को ऐसी स्थिति में प्रस्तुत कर सकती थीं जिसमें लोग अकसर फालतू की गपशप और अटकले लगाते हैं। वे चाहती थीं कि अन्य लोग इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना के अपने संस्करण न बना पाएं और अपनी पुस्तक द्वारा वे अपने अनुभव को खुद बता पाने के हक को जताना चाहती थीं। वे इस बात से नाखुश थीं कि समाज अकसर यह मान लेता है कि आत्महत्या की स्थिति में परिवार और प्रियजनों को शोक करने का कोई अधिकार नहीं है। किताब लिखना उनके लिए अभिव्यक्ति का, पुनः ठीक महसूस करने का और आतंरिक परिवर्तन का साधन था। उन्हें किताब लिखने का काम बहुत पसंद आया।

पुस्तक के लिए सामग्री एकत्रित करते समय चुनौतियों का सामना...

पुस्तक लिखने के ख़याल के बीज नंदिनीजी के अंकल ने बोए थे।

सबसे बड़ी चुनौती थी पुस्तक की उपयुक्त संरचना। नंदिनीजी यह नहीं चाहती थी कि उनकी पुस्तक एक डायरी जैसी लिखी जाए। आघात इतना भयानक था कि कथा में सुसंगतता बनाना बहुत कठिन था। शुरुआती दिनों में, वे अपने दुःख में और आस-पास हो रही घटनाओं के दलदल में डूब रही थीं - इसलिए उन्होंने यह समय आत्महत्या संबंधी विषयों पर विस्तार में पढ़ने में लगाया। यूं मानिए, वे खुद को एक स्वघोषित सुसाइडोलॉजिस्ट कह सकती हैं! उन्होंने आत्महत्या की पहली वर्षगांठ के तुरंत बाद पुस्तक लिखना शुरू किया। आरम्भ में, जब आत्महत्या के सदमे से वे बहुत घायल थी, वे सिर्फ कई सारे अलग-अलग अनुच्छेद लिख पायीं - उन्हें सहज प्रवाह सूत्र में जोड़ने वाले वाक्य नहीं थे। उनके अंकल ने पुस्तक की संरचना करने में और अध्यायों को आकार देने में उनकी मदद की।

सोच-समझकर यह तय करना कि पुस्तक में क्या शामिल करना है और क्या नहीं, यह भी एक बड़ी चुनौती थी क्योंकि वे अपनी और अपने पति के निजी पहलुओं की गोपनीयता बनाए रखना चाहती थी। वे नहीं चाहती थीं कि पुस्तक दृश्यरतिक हो (alternate wording:उनकी व्यक्तिगत कथा पाठकों के लिए मज़े लेने का साधन बने)। परन्तु वे यह भी चाहती थीं कि विषय के अनुरूप सब महत्वपूर्ण तथ्य साझा हों।

क्या मदुरई जैसे छोटे शहर में आत्महत्या के शोक से जूझना अधिक कठिन था...

नंदिनीजी को लगता है कि आत्महत्या जैसी घटनाओं में, हर उत्तरजीवी को एक जैसे ही कलंक, गोपनीयता, और चुप्पी का सामना करना पड़ता है; शहर छोटा हो या बड़ा, इस से ख़ास फर्क नहीं पड़ता। उनके अनुसार, ग्रामीण क्षेत्रों में आत्महत्या संबंधी कलंक शहरों के मुकाबले बहुत कम है, और वहां के लोग ऐसी स्थिति को बेहतर स्वीकार करते हैं और सहारा दे पाते हैं। बेशक, आत्महत्या के विभिन्न कारणों और उत्तरजीवियों का समर्थन करने के बारे में अज्ञानता बहुत अधिक है, लेकिन ऐसा तो पूरे भारत में है। इसके अलावा, नंदिनीजी का यह दृढ़ संकल्प था कि वे ही अपने बयान को पेश करें और एक सशक्त उत्तरजीवी बनें (एक बेचारी, पीड़ित व्यक्ति के रूप में न देखी जाएँ) - इस संकल्प ने उन्हें लोगों की बेकार की गपशप से पृथक रखा।

अपनी किताब में शामिल अनेक वास्तविक आत्महत्या से संबंधित व्याखानों में समानताओं पर…

नंदिनीजी कहती हैं कि एक समानता यह है कि परिवार वाले अपने प्रियजन की आत्महत्या को समझ नहीं पा रहे थे, वे उलझन महसूस करते थे, और उन्हें गहरा आघात पहुंचा था। अगर उन्हें पहले कुछ आशंका थी कि ऐसा हो सकता है, तब भी आत्महत्या वास्तव में होने पर वे बुरी तरह से आहत हुए थे। प्रियजन की आत्महत्या ने उनके जीवन को इतना तोड़ दिया मानो कोई ऐसा भूकंप आया हो कि इसे रिक्टर पैमाने पर नहीं मापा जा सकता था। उनका जीवन मानो दो भागों में विभाजित हो गया था - आत्महत्या के "पूर्व" और आत्महत्या के "पश्चात" - और आत्महत्या के पूर्व वाला जीवन पूरी तरह लुप्त/ गायब हो गया था। जबरदस्त शर्म और कलंक, फालतू की गपशप और अटकलें, अलगाव, दखल देने वाले सवाल - ये सभी सामान्य अनुभव थे। क्रूर जिज्ञासा के कारण शोक से जूझना बहुत चुनौतीपूर्ण था - यहां तक कि जो लोग शोक मनाने और सांत्वना देने आते थे वे वास्तव में आत्महत्या का विस्तृत ब्यौरा पाने की कोशिश करते थे। इसके अलावा, उत्तरजीवी खुद आत्महत्या से मरने वाले के गौरव को बनाए रखने की कोशिश करते थे - वे मृत व्यक्ति की प्रशंसा करते, कहते कि उन्हें पता नहीं क्या हुआ, यह भी कहते हुए कि "हमने तो अपनी पूरी कोशिश की"। वे अनकहे आरोपों से अपने को बचाने की कोशिश करते।

शर्मिंदगी और अपराधबोध सहित कई भावनाओं से प्रेरित, कभी-कभी उत्तरजीवियों को लगता है कि उन्हें आत्महत्या का असली कारण छिपाना चाहिए और उसकी जगह कोई सामाजिक रूप से स्वीकार्य कारण का आविष्कार करना चाहिए। अपराधबोध बहुत आम था। उत्तरजीवियों को अकसर यह ख़याल सताता रहता था कि उन्हें आत्महत्या को रोकने के लिए क्या करना चाहिए था। नंदिनीजी बताती हैं कि अमेरिकन साइकियाट्री एसोसिएशन आत्महत्या के शोक को हिटलर के कंसंट्रेशन कैंप में रहने के समान मानता है, और नंदिनीजी को लगता है कि यह उपमा बहुत उचित है।

वे यह भी महसूस करती हैं कि उत्तरजीवी कठिन परिस्थितियों का सामना करने और ठीक हो पाने में अत्यंत सक्षम हैं। वे अपने जीवन का ईंट पर ईंट जोड़ कर पुनर्निर्माण करते हैं, कदम दर कदम पूर्णता की खोज करते हैं, भले ही उन्हें लगे वे लाखों टुकड़ों में बिखर गए हैं।

एक उत्तरजीवी की यह यात्रा एक रोलर कोस्टर यात्रा की तरह बहुत टेड़ी मेडी और घुमावदार है। कुछ उत्तरजीवी इस आघात का उपयोग अपने आंतरिक परिवर्तन के लिए करने में सक्षम हैं।

शोक से जूझने के अकेलेपन वाले सफ़र में सुसाइड बिरीवमेंट सपोर्ट ग्रुप (आत्महत्या शोक सहायता समूह) जैसे संगठनों की भूमिका ...

नंदिनीजी बताते हैं कि शोक का सामना करना और उस से उभरने के सफ़र में उत्तरजीवी अकेले होते हैं - क्योंकि हालांकि दोस्त और परिवार सहारा देने की कोशिश करते हैं, पर वे वास्तव में उत्तरजीवियों की निराशा की गहराई को नहीं समझते हैं। लेकिन ऑनलाइन और ऑफलाइन सुसाइड बिरीवमेंट सपोर्ट ग्रुप (आत्महत्या के शोक से ग्रस्त लोगों की सहायता के लिए समुदाय) में ऐसे अनेक लोग होते हैं जो इसी तरह की दुखद घटना से गुजरे हैं - कुछ ठीक हो पाए हैं और कुछ खुद में बड़े परिवर्तन भी ला पाए हैं। जब उत्तरजीवी ऐसे लोगों से मिलते हैं जो इस तरह की क्षति और शोक को समझते हैं और अनुभव कर चुके हैं तो उत्तरजीवी भी अपनी स्थिति बेहतर समझ पाते हैं और उनका अकेलेपन का एहसास कम होता है - उन्हें यह नहीं लगता कि वे अपसामान्य है।

सपोर्ट ग्रुप में बिना किसी आलोचना का सामना करे खुल कर चर्चा हो पाती है। क्योंकि यहाँ अनुभव बार-बार साझा होते हैं, ऐसी जगह आत्महत्या से जुड़े शर्म और कलंक को कम करती है, और प्रियजन की मौत के घाव ठीक होना संभव हो जाता है। एक अन्य बात - हर आत्महत्या से हुई क्षति अलग होती है - उदाहरण के लिए, पति या पत्नी द्वारा आत्महत्या का शोक बच्चे या माता-पिता की आत्महत्या के शोक से अलग है। समूह में कई अनुभव साझा हों तो उत्तरजीवी को उपयुक्त मदद मिल पाना संभव होगा। साथ ही, नंदिनीजी यह चेतावनी भी देती हैं कि ऐसे सपोर्ट ग्रुप काउन्सलिंग या मनोचिकित्सा प्राप्त करने के साधन नहीं हैं।

एक प्राकृतिक मौत से सम्बंधित शोक की तुलना में आत्महत्या से हुई मौत पर शोक करने पर ...

नंदिनीजी कहती हैं कि प्राकृतिक और अप्राकृतिक मृत्यु जैसे लेबल हानिकारक हैं और आलोचना और कलंक को बढ़ाते हैं। आत्महत्या से हुई मौत के बाद शोक से जूझना अन्य प्रकार की मौतों के शोक से जूझने की तुलना में अधिक जटिल है क्योंकि यह अस्वीकृत है, मानो इसमें उत्तरजीवी को शोक महसूस करने का कोई अधिकार नहीं है। पुस्तक लिखने में नंदिनीजी का एक उद्देश्य यह था कि उत्तरजीवियों को दुख अनुभव और व्यक्त करने का अधिकार वापस मिले; समाज यह अधिकार जब्त नहीं कर सकता। आत्महत्या संबंधी शोक से पीड़ित अधिकांश उत्तरजीवी बहुत जिम्मेदार, देखभाल करने वाले पति-पत्नी, बेहद प्यार करने वाले माता-पिता/ भाई-बहन रहे हैं। ऐसी मौत को अन्य मौतों जैसे मानना चाहिए, पर अफ़सोस, पारंपरिक धारणाओं में इसे अपराध या पाप के रूप में देखा जाता है, और इस कलंक के कारण बहुत से उत्तरजीवी क्षति को स्वीकार करने में और खुले तौर पर बात करने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं।

जब मृत्यु का कारण आत्महत्या नहीं होता तो शोक में लोग सांत्वना देते है और करुणा, सहानुभूति और समर्थन देते हैं, लेकिन यदि मृत्यु आत्महत्या से हुई है, तो लोग आलोचनात्मक होते हैं, जिज्ञासुक होते हैं और दखलंदाज़ होते हैं, कुरेद-कुरेद कर आत्महत्या का कारण पता चलाने की कोशिश करते हैं। उत्तरजीवी बस यह चाहते हैं कि उनकी शोक प्रक्रिया को भी सामान्य माना जाए।

उत्तरजीवियों के लिए एक और संघर्ष यह है कि उनके लिए मृत प्रियजन की सुखद यादों को बनाए रखना मुश्किल होता है क्योंकि उन यादों पर आत्महत्या का काला साया पड़ जाता है। अतीत की सुखद यादों का आनंद लेना बहुत कठिन है। नंदिनीजी बताती हैं कि उत्तरजीवियों में मानसिक स्वास्थ्य समस्याएँ विकसित होने की संभावना बहुत अधिक होती है - जैसे तनाव, अवसाद और दुश्चिंता, पोस्ट-ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर । उन्हें अपने जीवन को फिर से पटरी पर लाने के लिए एक सुरक्षा जाल की जरूरत होती है - इस के लिए उन्हें बिना शर्त वाला प्यार और समर्थन चाहिए और परिवार के अंदर और बाहर ऐसा माहौल चाहिए जहां वे सुरक्षित महसूस करें। लेकिन उनके इर्दगिर्द लोग पूरी तरह से असंवेदनशील हैं।

पुस्तक लिखने की क्रिया फिर से ठीक होने और प्रबल भावनाओं के शमन में मददगार ...

नंदिनीजी ने इस बात की पुष्टि की कि पुस्तक लेखन उन के लिए परिवर्तनकारी था, और उन्हें लिखने से बहुत आनंद और संतोष मिला। हाँ ऐसे कई क्षण थे जब वे कई तरह की भावनाओं से घिरी हुई थीं, लेकिन लिखते समय वे खुद को समता, आनंद और शांति में स्थापित कर लेती थीं। वे चाहती थीं कि उनके पाठक पुस्तक पढ़ते समय भी यही महसूस करें। लेखन क्रिया न केवल उनकी प्रबल भावनाओं का शमन कर पाने में सफल रही, यह उनके अस्तित्व के गहरे सागर में गोता लगाने जैसी थी। वे इस आंतरिक गोते से ज्ञान के मोतियों के साथ ऊपर आईं, जो उनके लिए बहुत प्रिय था। लेखन आसान नहीं था लेकिन यह एक महान साहसिक कार्य था और उन्हें खुशी है कि उन्होंने यह अत्यंत चुनौतीपूर्ण यात्रा शुरू की, भले ही इस के लिए उन के पास कोई नक्शा या जीपीएस नहीं था, बस कभी कभी एक लाइटहाउस था।

जटिल और दर्दनाक शोक की प्रक्रिया से गुजरते हुए उन्होंने अपने जीवन में नए अर्थों की खोज कैसे की ...

नंदिनीजी का कहना है कि उन्हें यह नहीं पता था कि शोक प्रक्रिया कितनी अकेलेपन से भरी और जटिल होगी, लेकिन हाँ, इस के दौरान उन्हें जीवन में नए अर्थ मिले। यह उनके इस विषय पर उनके व्यापक पढ़ने, और उनकी फेमिनिस्ट (नारीवादी) चेतना, धर्म और आध्यात्मिकता के कारण था। इनसे उन्हें बेहद ताकत मिली। यहां तक कि जब कभी वे लड़खड़ातीं और गिरने लगतीं, इस से उन्हें साहस और कठिनाइयों से जल्दी उबरने की क्षमता मिली। इसके अतिरिक्त उनका एक बहुत ही प्यार करने वाला और सहायक जन्म परिवार था और कुछ ऐसे करीबी दोस्त भी जो परिवार वालों जैसे ही थे। और जब वे दुःख के समुद्र में अकेली तैर रही थीं, उनके आध्यात्मिक गुरु की बुद्धि और करुणा उनपर पूनम के चाँद की तरह चमकती रही।

शोक करते हुए उन्होंने अपनी देखभाल कैसे की ...

नंदिनीजी खुद को आत्म-देखभाल की एक पोस्टर महिला (प्रतीक) मानती हैं - अपने जबरदस्त दुःख के बावजूद उन्होंने यह पहचाना कि दु:ख के मैराथन की समापन रेखा तक पहुँच पाने के लिए आत्म-देखभाल कितना महत्वपूर्ण है। इसलिए, उन्होंने अच्छी तरह विश्राम किया, अच्छी तरह से पौष्टिक भोजन लिया, और खूब पानी पिया। प्रारंभ में, भूख बिलकुल भी नहीं लगती थी। अपनी विचलित करने वाली भावनाओं का विरोध करने के बजाय वे उनका सामना करा और उन्हें स्वीकार करा। उन्होंने अपने दुःख से भागने की कोशिश करने के बजाय उसे गले लगा लिया और उसका सामना किया। जब रोने का मन होता, तो रो लेतीं।

वे अपने प्रति उदार रहीं, और अपने साथ हमेशा करुणा के साथ पेश आईं। उन्होंने बहुत सारी एडल्ट कलरिंग की, संगीत सुना। और क्योंकि उन्हें वाइल्डलाइफ और वाइल्डलाइफ फोटोग्राफी बहुत पसंद है, उन्होंने प्राकृतिक स्थानों में बहुत समय बिताया, जिस से उन्हें ठीक होने में बहुत मदद मिली। उन्होंने ऑनलाइन सहायता समूहों की तलाश की।

नंदिनीजी ने अपने घर के वातावरण में भी कुछ बदलाव किए, जैसे कि उसे फिर से पेंट करवाना और फर्नीचर और अन्य चीजों को फिर से व्यवस्थित करना। सबसे महत्वपूर्ण बात, उन्होंने एक्यूपंक्चर, योग, योग चिकित्सा और मर्म चिकित्सा (एक आयुर्वेदिक बॉडी-माइंड मसाज़) जैसी पारंपरिक चिकित्सा प्रणालियों को देखा/ आजमाया। उनकी आध्यात्मिकता और दैनिक पूजा और प्रार्थना से भी उन्हें मदद मिली। और निश्चित रूप से, उन्होंने बड़े पैमाने पर लिखा और आत्महत्या और आत्महत्या से घटी क्षति के बारे में पढ़ा। उनका मानना है कि ज्ञान वास्तव में लोगों को सशक्त बनाता है।

शोक संतप्त व्यक्ति के साथ आत्महत्या की क्षति के बारे में संवेदनशील बातचीत कैसे करें?

नंदिनीजी कहते हैं, मुख्य बात यह है कि दखलंदाजी से बचें और जिज्ञासा दिखाने के बजाय संवेदनशील बने रहें। शोक करने वाले व्यक्तियों की गरिमा और निजता का सम्मान करें। लोगों को सांत्वना देने के लिए सही शब्द खोजने में कठिनाई होती है, इसलिए शोकाकुल व्यक्तियों से बात करते समय करुणा का भाव रखें - उन्हें पता चल पाना चाहिए कि आप उनकी परवाह करते हैं। नंदिनीजी ने आत्महत्या की क्षति के शोक से जूझ रहे लोगों से बातचीत को समर्थन पूर्ण रखने के लिए कुछ टिप्स साझा किये हैं।

  • आत्महत्या करने की विधि के बारे में दखलंदाज़ सवाल न पूछें। 'हमें बताएं कि क्या हुआ' जैसी बातें न कहें।
  • 'यह भी बीत जाएगा', 'तुम्हें मजबूत होना चाहिए' जैसे आहत करने वाले घिसेपिटे चोट लगाने वाले वाक्यों का प्रयोग न करें।
  • दोषारोपण (स्पष्ट या सांकेतिक) न करें। इसकी जगह कुछ बेहतर वाक्य: ‘आपने उनको बहुत समर्थन दिया था', 'यह आपकी गलती नहीं है'।
  • 'आत्महत्या कायरता का कार्य है' या 'आत्महत्या करना स्वार्थ का काम है' जैसी बातें न करें।
  • 'ओह मुझे पता है कि आप कैसा महसूस करते हैं' जैसे चिकने बेमतलब वाक्यों से बचें क्योंकि यह सच नहीं है। इसके बजाय, सच बोलें। यदि आप नहीं समझ पा रहे हैं कि क्या कहना है, तो बस कहें, 'मुझे नहीं पता कि क्या कहूं, लेकिन मैं आपके साथ हूं और मैं मदद करने के लिए तैयार हूं।'
  • अवांछित सलाह न दें।
  • उनके साथ केवल इसलिए शोक न करें क्योंकि ऐसा करना ठीक माना जाता है।
  • समर्थन सक्रिय रूप से पहल लेकर दिखाएं। उदाहरण के लिए, आप शोक से गुज़र रहे लोगों को मेल-जोल के अवसरों में शामिल करें यह वे कैसे हैं, यह जानने के लिए उन्हें कॉल करें।
  • सहजता से उनकी बातें सुनें। अपने अनुभव को बार-बार लोगों को बता पाना भी ठीक होने का एक तरीका है।
  • शोक संतप्त व्यक्ति को आलोचना से मुक्त और करुणा भरा माहौल दें जहां उन्हें लगे की आप उन्हें सुन रहे हैं और आपको उनकी चिंता है।
  • कभी भी मिल रहे हों तो यह याद रखें, समर्थन केवल शब्दों से ही नहीं है, बल्कि अन्य संकेतों से भी होता है, जिसमें बॉडी लैंग्वेज भी शामिल है।

किताब के मुख्य बिंदु...

नंदिनीजी इस बात की पुष्टि करते हैं कि एक प्रमुख बिंदु है वह आशावादी नोट जिस पर किताब समाप्त होती है: 'एक समय पर एक कदम ले लेकर अतिविशाल दुखों को भी पीछे छोड़ा जा सकता है’। दूसरा यह है कि हालांकि लोग यह नियंत्रित नहीं कर सकते कि क्या होगा, उन्हें अपनी प्रतिक्रिया पर नियंत्रण होता है । किसी भी घटना और उस पर हमारी प्रतिक्रिया के बीच का अंतर वह जगह है जहां हमारे पास विकल्प और स्वतंत्र इच्छा होती है। सबसे चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में भी आशा की एक किरण होती है। प्रकाश सबसे अंधेरी गुफा में भी छन कर आ पाता है, सबसे गहरी समुद्री की गहराई को पार कर सकता है। इस प्रकाश को खोजना होगा। आत्महत्या के कारण हुए दुख को समाप्त करने के लिए हमें अपने भीतर जाना होगा और अपने अन्दर के चिकिस्तक से जुड़ना होगा। नंदिनीजी भीतर के सर्वोच्च चिकित्सक के साथ जुड़ गई हैं, और हालांकि वे पूरी तरह ठीक नहीं हुई हैं, पर ठीक होने की उनकी यात्रा जारी है।

पाठकों के लिए उनका संदेश है कि जिन लोगों ने आत्महत्या के कारण प्रियजन को खो दिया है, उन्हें अपने प्रियजन की यादों को संजोना चाहिए और इन्हें एक पवित्र विरासत समझना चाहिए। लोग जीवन में इस सब को बगल में छोड़ कर आगे नहीं बढ़ते हैं, बल्कि वे अपने शोक को बीच से, कदम दर कदम आगे बढ़कर पार करते हैं। और बृहत्काय दुखों को भी इस तरह पीछे छोड़ा जा सकता है। नंदिनीजी खुद को कठिनाइयों से जल्दी उबरने की क्षमता की प्रतिमूर्ति या अत्यंत शोक से उबरने वाली फ़ीनिक्स के रूप में नहीं मानती हैं, बल्कि एक ऐसे साधारण व्यक्ति के रूप में देखती हैं जिसने एक असाधारण चुनौती का सामना अपनी क्षमता अनुसार, पूरी कोशिश लगाकर किया।

नंदिनीजी को लगता है कि आत्महत्या और उस की क्षति के विषय पर सार्वजनिक रूप से सूचित दृष्टिकोण के साथ खुलकर चर्चा करने की आवश्यकता है। भारत में आत्महत्या रोकथाम के क्षेत्र में मानसिक स्वास्थ्य पेशेवर, स्वास्थ्य देखभाल पेशेवर, मीडिया, कानून प्रवर्तन, न्यायपालिका, कार्यकर्ता, नीति निर्माता, गैर सरकारी संगठन जैसे हितधारक शामिल हैं। इस निवारण के वार्तालाप में उन लोगों को भी शामिल करना चाहिए जिन्होंने प्रियजनों की आत्महत्या का अनुभव किया है या खुद आत्महत्या का विचार या प्रयास किया है। ऐसे जीवित अनुभवों वाले लोगों के पास ज्ञान और अंतर्दृष्टि होती है क्योंकि उन्होंने आत्महत्या को करीब और व्यक्तिगत रूप से देखा है और चर्चा में उनका समावेश मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों और अन्य हितधारकों के नैदानिक दृष्टिकोण को बेहतर बना सकता है।

एक अंतिम मुख्य बिंदु यह है कि आत्महत्या और आत्महत्या क्षति के मुद्दों को मानवीय दृष्टि से देखना चाहिए न कि इस नज़र से कि ये अपराध से जुड़े हैं। आत्महत्या एक गहरा व्यक्तिगत मुद्दा है जो बहुत ही जटिल लेकिन व्यापक है। इस विषय पर चर्चा को वर्जित करना और इसे जहरीली चुप्पी में ढकने के बजाय इस पर ईमानदारी से और खुले तौर पर बात कर पाने वाला के लिए सहायक वातावरण की आवश्यकता है। इन पुराने वर्णनों को बदलने का समय आ गया है। और उनकी किताब का लक्ष्य ऐसा ही करना है।

(डॉ नंदिनी मुरली एक आत्महत्या रोकथाम और मानसिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता हैं। आत्महत्या हानि के उनके जीवित अनुभव ने उन्हें एमएस चेलामुथु ट्रस्ट एंड रिसर्च फाउंडेशन, मदुरै की एक पहल, स्पीक, और मनोवैज्ञानिक संकट अनुभव कर रहे लोगों के लिए एक मानसिक स्वास्थ्य हेल्पलाइन स्पीकटूअस (SPEAK2us 9375493754) की स्थापना करने के लिए प्रेरित किया।)